अंग्रेजी भाषा कैसे बना औपनिवेशिक विरासत से आज सामाजिक प्रतिष्ठा तक का सफर

History of English language News: भारत में अंग्रेजी भाषा का इतिहास और उसका सामाजिक महत्व समय के साथ नाटकीय रूप से बदल गया है। कभी यह भाषा औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ संवाद का माध्यम थी, तो आज यह सामाजिक प्रतिष्ठा, आर्थिक उन्नति और वैश्विक पहचान का प्रतीक बन चुकी है। आज के माता-पिता, चाहे उनकी अपनी शैक्षिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाने के लिए उत्सुक हैं। यह बदलाव समाज में कैसे और क्यों आया? आइए, इस पर एक नजर डालते हैं।

औपनिवेशिक दौर में अंग्रेजी का आगमन
19वीं सदी में जब अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया, तब अंग्रेजी भाषा को प्रशासनिक और शैक्षिक प्रणाली में लागू करना शुरू कर दिया। 1835 में लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति ने अंग्रेजी को उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों का आधार बनाया। भारतीय बुद्धिजीवियों, जैसे राजा राममोहन राय, ने अंग्रेजी सीखने का समर्थन किया ताकि पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विचारों को समझा जा सके। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने अंग्रेजी का उपयोग अंग्रेजों से संवाद करने और अपनी बात को वैश्विक मंच तक पहुंचाने के लिए किया। उस समय अंग्रेजी सीखना एक रणनीतिक कदम था, न कि सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक।

स्वतंत्रता के बाद अंग्रेजी की स्थिति
स्वतंत्रता के बाद भारत में हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने की कोशिश की गई। संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया, लेकिन अंग्रेजी को भी सह-राजभाषा के रूप में बनाए रखा गया। इसका कारण था भारत की भाषाई विविधता और वैश्विक स्तर पर अंग्रेजी का महत्व। सरकारी नौकरियां, उच्च शिक्षा, और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अंग्रेजी का दबदबा बना रहा। धीरे-धीरे, अंग्रेजी जानने वाले लोग समाज में एक अलग पहचान बनाने लगे।

आधुनिक भारत में अंग्रेजी का उभार
20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत में वैश्वीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति ने अंग्रेजी के महत्व को और बढ़ा दिया। भारत में आईटी उद्योग, बीपीओ सेक्टर, और कॉरपोरेट क्षेत्र में अंग्रेजी एक अनिवार्य कौशल बन गई। नौकरियों और करियर की दौड़ में अंग्रेजी जानने वालों को प्राथमिकता मिलने लगी। इससे समाज में यह धारणा बनी कि अंग्रेजी शिक्षा न केवल आर्थिक उन्नति का द्वार है, बल्कि यह सामाजिक प्रतिष्ठा का भी प्रतीक है।

माता-पिता की मानसिकता में बदलाव
आज के माता-पिता, चाहे वे स्वयं पढ़े-लिखे हों या नहीं, अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को प्राथमिकता देते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं:
1. आर्थिक अवसर: अंग्रेजी जानने वाले बच्चों को बेहतर नौकरियां और वैश्विक अवसर मिलने की संभावना अधिक होती है। माता-पिता इसे भविष्य की सुरक्षा के रूप में देखते हैं।
2. सामाजिक स्थिति: अंग्रेजी बोलने और समझने की क्षमता को समाज में “हाई क्लास” माना जाता है। अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को आधुनिक और प्रगतिशील माना जाता है।
3. शहरीकरण और वैश्वीकरण: शहरी क्षेत्रों में अंग्रेजी का चलन बढ़ा है। टीवी, सोशल मीडिया, और इंटरनेट ने भी अंग्रेजी को आकर्षक बनाया है।
4. प्रतिस्पर्धा का दबाव: माता-पिता को लगता है कि यदि उनके बच्चे अंग्रेजी में पारंगत नहीं होंगे, तो वे प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाएंगे।
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव

इस बदलाव ने समाज में गहरे प्रभाव छोड़े हैं। एक ओर, अंग्रेजी ने भारतीयों को वैश्विक मंच पर जोड़ा, वहीं दूसरी ओर, यह क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृतियों के प्रति उदासीनता का कारण भी बना। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को “गंवार” या “पिछड़ा” समझने की मानसिकता बढ़ी है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी अंग्रेजी स्कूलों की मांग बढ़ रही है, भले ही वहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी हो। कई बार माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी बोलने के लिए दबाव डालते हैं, जिससे बच्चे अपनी मातृभाषा से दूरी महसूस करने लगते हैं।

चुनौतियां और भविष्य
हालांकि अंग्रेजी का महत्व निर्विवाद है, लेकिन इसके प्रति अंधी दौड़ ने कई समस्याएं भी पैदा की हैं। निम्न-गुणवत्ता वाले अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को न तो अंग्रेजी ठीक से आती है और न ही अन्य विषयों की समझ विकसित होती है। इसके अलावा, भाषा के आधार पर सामाजिक भेदभाव भी बढ़ा है। भविष्य में जरूरत है कि अंग्रेजी के साथ-साथ मातृभाषा को भी महत्व दिया जाए। द्विभाषी शिक्षा मॉडल, जिसमें मातृभाषा और अंग्रेजी दोनों को संतुलित रूप से सिखाया जाए, इस समस्या का समाधान हो सकता है।

निष्कर्ष
अंग्रेजी का भारत में सफर औपनिवेशिक आवश्यकता से शुरू होकर सामाजिक प्रतिष्ठा तक पहुंचा है। यह बदलाव वैश्वीकरण, आर्थिक अवसरों और सामाजिक धारणाओं का परिणाम है। हालांकि, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अंग्रेजी के प्रति उत्साह हमारी सांस्कृतिक और भाषाई विरासत को कमजोर न करे। शिक्षा नीतियों और सामाजिक जागरूकता के जरिए हमें एक ऐसा समाज बनाना होगा, जहां अंग्रेजी और भारतीय भाषाएं एक-दूसरे के पूरक बनें, न कि प्रतिद्वंद्वी।

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