क्या जम्मू कश्मीर में 1990 का इतिहास खुद को दोहरा रहा है?
नई दिल्ली। जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के इस्तीफे से पैदा हालात घाटी में 1989 के नवंबर में बुरी तरह बिगड़ी समाजिक, राजनीतिक और कानून व्यवस्था की स्थिति याद दिला रहे है। इसी के साथ ये 1990 में मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के इस्तीफे की याद भी ताजा कर रहे हैं। केंद्र में बीजेपी और वाम मोर्चा समर्थित जनता दल की वी पी सिंह सरकार बनने के साथ घाटी में कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम और उन्हें घाटी से बाहर खदेडऩे का सिलसिला शुरू हो गया था। घाटी से जान हथेली पर लेकर भागे कश्मीरी पंडितों का पहला जत्था नई दिल्ली स्थित अमर कालोनी की कश्मीरी समिति में 30 दिसंबर, 1989 को पहुंचा था. लेखक ने उनसे बातचीत कर जब अपने अखबार में खबर दी तो राजनीतिक और सुरक्षाा मंडली में खलबली मच गई. विपक्ष में बैठी कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने केंद्रीय गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद पर निशाना साधा और मानों वो नींद से जागे। केंद्र सरकार जब तक हरकत में आती तभी सईद की डॉक्टर बेटी, रूबिया सईद का घाटी के आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया. इसपर भी खूब बवाल मचा. मगर केंद्र सरकार ने चुनींदा आतंकवादियों की रिहाई के बदले रूबिया की वापसी का सौदा कर लिया. इससे जाहिर है कि सरकार को बाहर से समर्थन दे रही बीजेपी को अपना हिंदू वोट बैंक खिसकने की चिंता हुई और उसने वी.पी सिंह पर दबाव डाल कर दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल जगमोहन मल्होत्रा को राज्यपाल बनाकर श्रीनगर भिजवा दिया। जगमोहन इससे पहले 1984 में भी जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे थे और उन्होंने फारूक अब्दुल्ला की निर्वाचित सरकार में से नेशनल कांफ्रेंस के विधायकों को तोड़कर मुख्यमंत्री पद का दावा करने वाले जी एम शाह की सरकार बनवाई थी. शाह दरअसल फारूक के बहनोई ही थे और उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शह पर पार्टी तोड़कर राज्य में कांग्रेस के समर्थन से अपनी सरकार बनाई थी।
जब कांग्रेस का हाथ छोड़ जगमोहन ने थामा बीजेपी का दामन जगमोहन को आपातकाल मे भी संजय गांधी और बाद में इंदिरा का चहेता माना जाता था लेकिन उन्होंने पलटी मारकर बीजेपी का दामन थामा और जम्मू कश्मीर में लगभग भारत के हाथ से निकल चुकी घाटी पर फिर से पक? बनाने की जुगत में लग गए. अपनी इस जद्दोजहद का जगमोहन ने कश्मीर पर अपनी बहुचर्चित पुस्तक माई फ्रोजन टर्बुलेंस इन कश्मीर में विस्तृत वर्णन किया है। उस समय कश्मीर में कानून-व्यवस्था का नामोनिशान नहीं बचा था. आए दिन जलूस, धरने और प्रदर्शन हो रहे थे जिनमें सरेआम आजादी के नारे लगते और पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता।भीड में शामिल हथियारबंद अलगाववादी जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवानों और सुरक्षा बलों को अपना निशाना बनाते जिसकी जवाबी कार्रवाई में निर्दोश मारे जाते.कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम करके उन्हें घाटी से निकाल बाहर करने की साजिश भी बदस्तूर जारी रही. जगमोहन पर कश्मीरी पंडितों के देशनिकाले की अनदेखी के आरोप भी लगे. उपर से फारूक अब्दुल्ला और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की राजनीतिक पैंतरेबाजी ने ऐसे हालात बनाए कि जगमोहन का टिकना नामुमकिन हो गया. यूं भी वे नगर प्रशासक थे सो जम्मू-कश्मीर जैसे लगभग युद्धग्रस्त क्षेत्र के राज्यपाल जैसी संवेदनशील जिम्मेदारी कोई पुलिस या सेना का पूर्व अधिकारी ही उठा सकता था.कश्मीर के बेकाबू हालातों में राज्यपाल बने गैरी सक्सेनासो मई 1990 में रॉ के पूर्व मुखिया और दो साल प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सुरक्षा सलाहकार रहे गिरीशचंद्र उर्फ गैरी सक्सेना को हिंसा और अलगाववाद की आग में जल रहे बर्फीले प्रदेश जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया. गैरी जब श्रीनगर पहुंचे तो राज्य के हालात बेकाबू थे. इसके बावजूद उन्होंने अपने चार साल लंबे पहले कार्यकाल के दौरान घाटी में खुफिया सूचना तंत्र को फिर से प्रभावी बनाया और अलगाववादियों की मुश्कें कसीं.गैरी के ही काल में कश्मीर में सुरक्षा बलों ओर अलगाववादियों के बीच टकराव की कई जबरदस्त घटनाएं हुईं जिनमें अनेक निर्दोश भी मारे गए. इसके बावजूद गैरी रॉ में और आईपीएस के तौर पर भी खुफिया सेवा के अपने अनुभव के अनुरूप घाटी के हालात से जूझते रहे. साल 1947 में अंग्रेजी शासन के आखिरी दौर में आईपीएस बने गैरी ने हमेशा अपना काम चुपचाप, मनोयोग से किया और सार्वजनिक रूप में भी गरिमापूर्वक पेश आए. मितभाशी होने के बावजूद गैरी ने जरूरी सूचना प्रेस को देने में कभी कोताही नहीं की मगर खबरें प्लांट कराने में उन्होंने कभी दिलचस्पी नहीं ली.उस दौरान मस्त गुल जैसे अफगान ल?ाके भी भारी संख्या में कश्मीर में आ घुसे थे. अफगान ल?ाकों और पाकिस्तान की आईएसआई की शह पर कश्मीर अलगाववादियों का अड्डा बन गया था. आए दिन स?कों पर हथियार लहराते हुए हिंसक जलूस निकालना और सुरक्षा बलों पर गोलियां दागना उनका प्रिय शगल हो गया था. जुमे यानी शुक्रवार की नमाज का दिन जम्मू-कश्मीर प्रशासन के लिए खासतौर पर क परीक्षा का होता था. जुमे की नमाज के लिए सार्वजनिक स्थान पर जमा होने वाले लोगों के सामने जब मौलवी या अलगाववादी नेता भ?काउ भाषण देते तो वे बेकाबू होकर जगह-जगह हिंसा पर उतर आते. उन्मादी भी? को काबू करने सुरक्षाकर्मी जब बल प्रयोग करते तो उन पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगते, बहुत कुछ वैसे ही जैसे संयुक्त राष्ट्र की हालिया रिपोर्ट में लगाए गए हैं.
कुल मिलाकर गैरी सक्सेना के सामने कश्मीर को भारत में बचाने और वहां अलगावादियों के मंसूबे तो?कर फिर से कानून का राज स्थापित करने की अभूतपूर्व चुनौती थी जिसका उन्होंने अगले तीन साल 1993 तक डट कर मुकाबला किया और हालात काबू किए.
पाकिस्तान के हाथ लगा अच्छा मौका
साल 1993 में केंद्रीय गृहमंत्री एस बी चव्हाण से मतभेद होने पर उन्होंने अपना बैग उठाया और दिल्ली आकर अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी. हालांकि 1998 में एनडीए की सरकार ने उन्हें फिर से जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया. गैरी की जगह 1993 में पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल के.वी.कृष्णाराव को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया और उन्हें भी राज्य पुलिस बल में विद्रोह, चरारे शरीफ में मस्त गुल के कब्जे और दो नरसंहारों की चुनौतियों से निपटना . ऐसी विकट परिस्थिति से निपटने के फेर में सुरक्षा बलों से भी कई मामलों में अति हुई जिससे कश्मीर की अवाम और भ?क गई. साथ ही पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर समस्या को भारत की ज्यादती और जबरदस्ती के रूप में पेश करने का मौका मिला लेकिन 1994 में पाकिस्तान ने जब संयुक्त राष्ट्र में इस मुद्दे पर लामबंदी की कोशिश की तो भारत ने भी अपनी राजनीतिक सूजबूझ और लामबंदी से उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया.बहरहाल जम्मू-कश्मीर मोदी सरकार और बीजेपी ने महबूबा मुफ्ती की सरकार को जैसे गिराया है उससे साफ है कि यह सीमाई राज्य अब राज्यपाल शासन के तहत केंद्र के सीधे नियंत्रण में रहेगा. साथ ही घाटी में अलगाववाद और आतंकवाद की ओर तेजी से आकर्षित हो रहे युवाओं की लगाम कसने के लिए केंद्र सरकार वहां और भी क?ाई करने के फेर में लग रही है.
आतंकवाद से निपटने के लिए क्या करेगी केंद्र सरकार?
जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एन एन वोहरा भी प्रशासनिक अनुभव के लिहाज से मंजे हुए नौकरशाह हैं. वे केंद्रीय गृहसचिव भी रह चुके हैं. राजनीति के अपराधीकरण पर उनकी रिपोर्ट आज भी हमारे लोकतंत्र के खोखलेपन को उजागर करने वाला सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं. अब देखना यही है कि मोदी सरकार घाटी में सुरक्षा बलों को अलगाववादियों से निपटने की और अधिक छूट देने की अपनी नीति की कमान अस्सी का दशक पार कर रहे वोहरा के हाथों में सौंपेगी या खुफिया सेवा या सेना के किसी पूर्व अफसर को यह जिम्मा सौंपेगी. वोहरा का कार्यकाल यूं भी खत्म होने को ही है, जिसे अमरनाथ यात्रा के मद्देनजर और तीन महीने बढ़ाए जाने के कयास लग रहे हैं. कुल मिलाकर जम्मू- कश्मीर में हालात पिछले साल दिवंगत हुए पूर्व राज्यपाल गैरी सक्सेना के कार्यकाल जैसे ही बेकाबू होने के कगार पर हैं. इस बार सुरक्षा बलों के लिए चुनौती सिर्फ हथियारबंद अलगावादी ही नहीं बल्कि पत्थरबाज किशोर भी हैं जिनमें स्कूली लड़कियां शामिल हो चुकी हैं और अब खतरा औरतों के घर से बाहर आकर पत्थरबाजों का साथ देने का मंडरा रहा है. देखना यही हे कि लोकतांत्रिक और संवैधानिक दायरे में रहते हुए सुरक्षा बल कैसे कश्मीर में अधीर और गुस्साई अवाम को शांत कर पाएंगे.
आतंकवाद से निपटने के लिए क्या करेगी केंद्र सरकार?
बहरहाल जम्मू-कश्मीर मोदी सरकार और बीजेपी ने महबूबा मुफ्ती की सरकार को जैसे गिराया है उससे साफ है कि यह सीमाई राज्य अब राज्यपाल शासन के तहत केंद्र के सीधे नियंत्रण में रहेगा. साथ ही घाटी में अलगाववाद और आतंकवाद की ओर तेजी से आकर्षित हो रहे युवाओं की लगाम कसने के लिए केंद्र सरकार वहां और भी कड़ाई करने के फेर में लग रही है। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एन एन वोहरा भी प्रशासनिक अनुभव के लिहाज से मंजे हुए नौकरशाह हैं. वे केंद्रीय गृहसचिव भी रह चुके हैं. राजनीति के अपराधीकरण पर उनकी रिपोर्ट आज भी हमारे लोकतंत्र के खोखलेपन को उजागर करने वाला सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। अब देखना यही है कि मोदी सरकार घाटी में सुरक्षा बलों को अलगाववादियों से निपटने की और अधिक छूट देने की अपनी नीति की कमान अस्सी का दशक पार कर रहे वोहरा के हाथों में सौंपेगी या खुफिया सेवा या सेना के किसी पूर्व अफसर को यह जिम्मा सौंपेगी।
वोहरा का कार्यकाल यूं भी खत्म होने को ही है, जिसे अमरनाथ यात्रा के मद्देनजर और तीन महीने बढ़ाए जाने के कयास लग रहे हैं. कुल मिलाकर जम्मू- कश्मीर में हालात पिछले साल दिवंगत हुए पूर्व राज्यपाल गैरी सक्सेना के कार्यकाल जैसे ही बेकाबू होने के कगार पर हैं. इस बार सुरक्षा बलों के लिए चुनौती सिर्फ हथियारबंद अलगावादी ही नहीं बल्कि पत्थरबाज किशोर भी हैं जिनमें स्कूली लड़कियां शामिल हो चुकी हैं और अब खतरा औरतों के घर से बाहर आकर पत्थरबाजों का साथ देने का मंडरा रहा है. देखना यही हे कि लोकतांत्रिक और संवैधानिक दायरे में रहते हुए सुरक्षा बल कैसे कश्मीर में अधीर और गुस्साई अवाम को शांत कर पाएंगे.