New Delhi News: तटीय ईकोसिस्टम पर मंडरा रहा ख़तरा, दस्तावेजीकरण से हो सकता है बचाव का रास्ता

New Delhi News: विश्व भर के तटीय ईकोसिस्टम पर बढ़ता खतरा अब किसी से छिप नहीं सकता है। जलवायु परिवर्तन, समुद्र के बढ़ते स्तर, प्रदूषण, और मानवजनित गतिविधियों के कारण तटीय क्षेत्रों की जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को संकट में डाल दिया हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि इन तटों को बचाने के लिए हर पहलू का विस्तृत दस्तावेजीकरण एक प्रभावी कदम हो सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने हाल ही में टोंगा जैसे प्रशांत देशों में समुद्र के बढ़ते स्तर के खतरों पर चेतावनी दी थी, जिसका असर तटीय समुदायों पर पड़ रहा है। वैश्विक आंकड़ों के अनुसार, 1880 के बाद से समुद्र का स्तर 20 सेंटीमीटर से अधिक बढ़ चुका है, जिससे निचले द्वीप जैसे मालदीव, तुवालु, और फिजी के साथ-साथ भारत, बांग्लादेश, और चीन जैसे तटीय क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। विश्व की लगभग 40% जनसंख्या समुद्र तटों के पास रहती है, जिसमें मुंबई, काहिरा, और लंदन जैसे बड़े शहर भी शामिल हैं।
भारत के तटीय क्षेत्र, जैसे महाबलीपुरम और पूमपुहार, भी तटीय क्षरण का लगातार शिकार हो रहे हैं। गोवा के राष्ट्रीय समुद्र-विज्ञान संस्थान (एनआईओ) के अध्ययनों से पता चला है कि महाबलीपुरम में पिछले 41 वर्षों में 177 मीटर और पूमपुहार में 36 वर्षों में 129 मीटर तटीय क्षरण हुआ है। ऐतिहासिक स्थल जैसे त्रेंकबार का मासिलमणी मंदिर भी समुद्र के प्रहार से आधे से अधिक नष्ट हो चुका है।
जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र की सतह का तापमान बढ़ रहा है और महासागरों का अम्लीकरण हो रहा है, जिससे प्रवाल भित्तियों (कोरल रीफ्स) और समुद्री जीवों का अस्तित्व खतरे में है। लक्षद्वीप जैसे क्षेत्रों में प्रवाल भित्तियों का बड़े पैमाने पर क्षय (ब्लीचिंग) हो रहा है, जिससे मछली पालन और पर्यटन पर निर्भर अर्थव्यवस्थाएं संकट में हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि तटीय ईकोसिस्टम के हर पहलू—जैव विविधता, प्रजातियों का वितरण, और मानव गतिविधियों के प्रभाव—का विस्तृत दस्तावेजीकरण संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है। इससे उन क्षेत्रों की पहचान हो सकती है जहां खतरा सबसे अधिक है और संरक्षण के लिए प्रभावी रणनीतियां बनाई जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, भू-स्थानिक तकनीक और रिमोट सेंसिंग के उपयोग से तटीय क्षरण और प्राचीन स्थलों के नुकसान का अध्ययन किया जा रहा है, जिससे यह समझने में मदद मिलती है कि समुद्र ने कितना भूभाग निगल लिया है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों के साथ जैव विविधता के दस्तावेजीकरण को जोड़ने से संरक्षण कार्यों को प्राथमिकता दी जा सकती है, जो आर्थिक रूप से कुशल और सामाजिक रूप से न्यायसंगत हों।
शोधकर्ताओं ने कई समाधान सुझाए हैं, जैसे मैंग्रोव वनों को पुनर्जनन, तटीय कटाव को रोकने के लिए प्राकृतिक अवरोधों का निर्माण, और तैरते हुए शहरों जैसे नवोन्मेषी विचारों पर काम करना। मालदीव और तुवालु जैसे क्षेत्रों में तैरते शहरों की अवधारणा पर विचार किया जा रहा है। इसके अलावा, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने से समुद्री जैव विविधता के विलुप्त होने के खतरे को 70% तक कम किया जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुटेरेस ने चेतावनी दी है, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के नुकसान से न केवल पर्यावरण, बल्कि वैश्विक व्यापार और शांति भी खतरे में पड़ सकती है। अब समय है कि विश्व समुदाय इस दिशा में एकजुट होकर कोई ढोस कदम उठाए।

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